हर बार चली एक नयी गोली ,
हर बार नयी एक जान गयी ,
और लाल रंग गिरा धरती पर ,
कि मना होली का रॊज पर्व |
हर बार बनी नयी विधवा ,
हर बार बाप ने खोया पुत्र ,
अगिनत अश्रु ढले अनंत पर ,
धुला नहीं वह लाल रंग |
हर बार नीर से भरे दुर्ग ,
जब जब देखा वो नारसहार ,
हर बार करुण एक आह बनी ,
जब सुनी मौत कि नयी कराह |
मिला नहीं किसे पति- पुत्र ,
और निज को नहीं मिला भ्राता ,
और बिछड़ गयी सास से बहु ,
जब भी बहा यह लाल लहू |
हर बार सोचता हु यह प्रश्न ,
क्यों तोड़ रहे वे खुद का अंश ,
हर बार मिला एक ही उत्तर ,
वहा इंसानियत खड़ी बनी निरुत्तर |
दुःख हुआ मुझे जब सोचा में ,
वे रॊज मचाते है उत्पात ,
और हिला रहे है नीव देश कि ,
जब पड़ोसियों से बन रही न बात |
हर बार समझता रहा यह कि ,
कल होगा इस सब का अंत ,
हर बार निराशा हाथ लगी ,
सब भूल खड़े थे धर्मपंत |
क्यों उनकी बाते करू याद ,
और होता रहू इस तरह त्रस्त ,
जब देख न सकते वे अंधे ,
हो रहा उनकी जाती का अस्त |
डॉ सुनील अग्रवाल
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