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Tuesday, 17 September 2013

ऑनर किलिंग

 

मै चाह कर भी न जान सका वो अनजान राहे ,
जहा क्षितिज पे मिलता है आस्मां-धरा से फैला के बाहे ,
दिल में एक अरमा है की उस क्षितिज पर हम चलकर जाये ,
फिर जुदा न कर पायेगा जमाना गर वो चाहे |

वहा अमीर गरीब का बंधन पीछे छूट जायेगा ,
वहा समाज का उच्च नीच हमें जुदा न कर पायेगा ,
वहा पर उगता सूरज हमें और करीब लायेगा ,
और अंधरे का चादर हमारी दुरिया मिटाएगा |

यहाँ पर तो पंचायत माई बाप बन जाता है ,
प्यार को भूलकर नफरत के फरमान सुनाता है ,
औलाद की ख़ुशी से ज्यादा आत्मसम्मान हो जाता है ,
माँ बाप को यहाँ पर तो समाज का डर सताता है |

रिश्ता अपनो से  एक क्षण में टूट जाता है ,
घर का लाडला अब नासूर बन जाता है ,
प्यार का रिश्ता खून से सन जाता है ,
इन्सान अपनी इंसानियत भूल जाता है |

तब मुझे धरा से अम्बर का मिलन याद आता है ,
इस नफरत से भरी दुनिया में क्षितिज मुझे बहुत भाता है |

डॉ सुनील अग्रवाल 




1 comment:

Paresh Kale said...

बहोत अच्छे !