उठ के देखा सुबह तो ,
खिली एक कलि थी ,
भवरे कुछ गुनगुनाते ,
पर गुमसुम बावली थी ,
बनके भवरा मै एक ,
चल पड़ा उसके पास ,
लगा पूछने उससे ,
उसकी बेहालगी क्यों ?
फफकर वो रोई ,
नयना आसु पिरोई ,
कहने लगी बोल ऐसे ,
वो कुछ अनमनी सी ,
हुआ थक्क सुनकर ,
मै खुद सिसकाया ,
फिर देखा गगन को ,
कहा इसे क्यों बनाया ,
न देखा है यॊवन ,
अभी यह अधूरी ,
पर फिर भी मधु इसकी ,
भवरे ने चुराई ,
शर्म के वजह से ,
यह मुह ना दिखाई ,
भोर हो चली ,
फिर भी यह रही कुमलाई |
और देखा बेबस इसे ,
तो भवरे आए अनेक ,
कुछ एक ने छेड़ा ,
किसी ने ताने दिए फेक ,
दुर्गो में नीर ,
उर में रोती हुई पीर ,
फिर भी चुप थी ,
वो अपनी लाचारगी पर |
मैंने सोचा बहोत ,
पर समझ कुछ न आया ,
जिसे कुछ ने उत्ताडा ,
उसके कपड़ो को फाड़ा ,
उसे ही समाज ने ,
लज्जा से गाडा ,
उसे ही सताया ,
उसे गुंगा बनाया ,
और किस बेदर्दी से ,
उसे जिन्दा लाश में सजाया |
डॉक्टर सुनील अग्रवाल
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