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Wednesday, 28 August 2013

जिंदा लाश


उठ के देखा सुबह तो ,
    खिली एक कलि थी ,
भवरे कुछ गुनगुनाते ,
    पर गुमसुम बावली थी ,
बनके भवरा मै एक ,
    चल पड़ा उसके पास ,
लगा पूछने उससे ,
    उसकी बेहालगी क्यों ?

फफकर वो रोई ,
    नयना आसु पिरोई ,
कहने लगी बोल ऐसे ,
    वो कुछ अनमनी सी ,
हुआ थक्क सुनकर ,
    मै खुद सिसकाया ,
फिर देखा गगन को ,
    कहा इसे क्यों बनाया ,
न देखा है यॊवन ,
    अभी यह अधूरी ,
पर फिर भी मधु इसकी ,
    भवरे ने चुराई ,
शर्म के वजह से ,
    यह मुह ना दिखाई ,
भोर हो चली ,
    फिर भी यह रही कुमलाई |

और देखा बेबस इसे ,
    तो भवरे आए अनेक ,
कुछ एक ने छेड़ा ,
    किसी ने ताने दिए फेक ,
दुर्गो में नीर ,
    उर में रोती हुई पीर ,
फिर भी चुप थी ,
    वो अपनी लाचारगी पर |

मैंने सोचा बहोत ,
    पर समझ कुछ न आया ,
जिसे कुछ ने उत्ताडा ,
    उसके कपड़ो को फाड़ा ,
उसे ही समाज ने ,
    लज्जा से गाडा ,
उसे ही सताया ,
    उसे गुंगा बनाया ,
और किस बेदर्दी से ,
    उसे जिन्दा लाश में सजाया |

डॉक्टर सुनील अग्रवाल

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