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Tuesday, 1 October 2013

वृधाश्रम


बढ़ती हुई झुरियो वाले गाल ,
चहरे पर सफ़ेद होते हुए बाल ,
शरीर और कपडे दोनों बेहाल ,
नम आखे इंतजार से हुई लाल |

जिस बेटे पर वो होते थे कुर्बान ,
जिसकी तारीफों में न थकती थी जुबान ,
आज उसी ने किया उस माँ-बाप अपमान ,
छोड़ दिया वृधाश्रम में करने को आराम |

बड़ते हुए लालच ने उसे अँधा बना दिया ,
ऐसोआराम के चाहत ने उसे स्वार्थी बना दिया ,
चलना जिसने सिखाया उन्हें पंगु बना दिया ,
लोरिया जिसने सुनाई उन्हें गूंगा बना दिया |

क्या ख़ुशी मिली तुझे उन्हें भुलाने में ?
क्या पा लिया तूने उन्हें रुलाने में ?
क्यों किया गैर तूने उन्हें ज़माने में ?
क्या डर था कम हो जाती दौलत तेरे खजाने में ?

भुला दिया है तूने माँ के दूध का कर्ज ,
ज्ञात न हो सका तुझे जन्मदाता के प्रति फर्ज ,
ऐसे औलाद से तो औलाद , न हो तो क्या है हर्ज ?
ज्हनुम में भी इसका नाम न हो सके दर्ज |

जिनके बदोलत तूने है पहचान पाया ,
जिस प्यार और ममता को तूने है गवाया ,
जिस अनमोल खजाने को तू तडफता छोड़ आया ,
आज भी तुझे आशीष देने के लिए उन्होंने अपना हाथ उठाया |

डॉ सुनील अग्रवाल 



2 comments:

Paresh Kale said...

ur poems are superb. Right words and right expressions !

Unknown said...

Thanks Paresh I try to express my feeling through the poetry, Thanks for appreciation