indiblogger member

Friday, 4 October 2013

दोस्ती (Friendship)


हर बार एक नयी तस्वीर उभर आती है ,
क्या पता वो मुझसे क्या कहना चाहती है ,
आखो में प्यार और ममता नजर आती है ,
होटों से अपनापन झलकाती है ,
कभी रूठती है कभी मनाती है ,
निशब्द होकर भी वो मुझे समझाती है ,
महबूबा बनकर कभी करीब आती है ,
और न जाने कब मेरे आगोश में समां जाती है ,
जब देखो तब वो मुझ पर हक़ जताती है ,
छोटी छोटी बातो में मेरा मजाक बनाती है ,
उसकी हर आहट से मेरी जिंदगी मुस्कुराती है ,
उससे बिछड़ने के ख्याल से ही आख भर आती है ,
बचपन से बुढ़ापे तक यही साथ निभाती है ,
हर गुजरे हुए पल की ये मीठी याद दिलाती है ,
ये मस्ती और नोकझोक दोनों की सेज सजाती है ,
दुःख दर्द में ये मुझे जीने की राह बताती है ,
ये दबे पैरो से सबके जीवन में आती है ,
इन्द्रधनुष के रंग सजीले जीवन में बिखराती है ,
ये आप सब की ' दोस्ती ' है ,
जो मुझको बहोत लुभाती है |

डॉ सुनील अग्रवाल 

Tuesday, 1 October 2013

वृधाश्रम


बढ़ती हुई झुरियो वाले गाल ,
चहरे पर सफ़ेद होते हुए बाल ,
शरीर और कपडे दोनों बेहाल ,
नम आखे इंतजार से हुई लाल |

जिस बेटे पर वो होते थे कुर्बान ,
जिसकी तारीफों में न थकती थी जुबान ,
आज उसी ने किया उस माँ-बाप अपमान ,
छोड़ दिया वृधाश्रम में करने को आराम |

बड़ते हुए लालच ने उसे अँधा बना दिया ,
ऐसोआराम के चाहत ने उसे स्वार्थी बना दिया ,
चलना जिसने सिखाया उन्हें पंगु बना दिया ,
लोरिया जिसने सुनाई उन्हें गूंगा बना दिया |

क्या ख़ुशी मिली तुझे उन्हें भुलाने में ?
क्या पा लिया तूने उन्हें रुलाने में ?
क्यों किया गैर तूने उन्हें ज़माने में ?
क्या डर था कम हो जाती दौलत तेरे खजाने में ?

भुला दिया है तूने माँ के दूध का कर्ज ,
ज्ञात न हो सका तुझे जन्मदाता के प्रति फर्ज ,
ऐसे औलाद से तो औलाद , न हो तो क्या है हर्ज ?
ज्हनुम में भी इसका नाम न हो सके दर्ज |

जिनके बदोलत तूने है पहचान पाया ,
जिस प्यार और ममता को तूने है गवाया ,
जिस अनमोल खजाने को तू तडफता छोड़ आया ,
आज भी तुझे आशीष देने के लिए उन्होंने अपना हाथ उठाया |

डॉ सुनील अग्रवाल 



Monday, 30 September 2013

पति की आत्मकथा


जब मै था अकेला ,
था बड़ा ही अलबेला ,
दोस्तों का था काफिला ,
और मौज मस्ती का था रेला |

तब न होता था सबेरा ,
महफ़िल थी रैन बसेरा ,
पर जब किस्मत का चला फेरा ,
पीछे छुट गया वो डेरा |

दोस्तों से हुआ मै दूर ,
बादशाह से बना मजदुर ,
हुआ मुझसे था एक कसूर ,
शादी का चढ़ा जब सुरूर |

शादी जो मैंने करली ,
मुसीबत से जिंदगी भरली ,
गर्दन भी उसने धरली ,
सुख शांति मेरी हरली |

बंधन था ये अनोखा ,
इसमें थी वो मलिका ,
मुझे सिर्फ चाकरी का मौका ,
कैसा किस्मत ने दिया धोका ?

पालतू बन गया अब जंगल का शेर ,
कंगाल हो गया अब घर का कुबेर ,
गर दोस्तों की महफ़िल में होजाये देर ,
तो अब करनी पड़ती है जहनुम की सेर |

मै बात भी करू तो है वो अत्याचार ,
वो गाली भी दे तो समझू मै प्यार ,
सचमें शादी के बाद जिंदगी है दुश्वार ,
पति बनने के पहले सोचना दो बार |

डॉ सुनील अग्रवाल

Wednesday, 25 September 2013

आतंकवाद एक समस्या


हर बार चली एक नयी गोली ,
हर बार नयी एक जान गयी ,
और लाल रंग गिरा धरती पर ,
कि मना होली का रॊज पर्व |

हर बार बनी नयी विधवा ,
हर बार बाप ने खोया पुत्र ,
अगिनत अश्रु ढले अनंत पर ,
धुला नहीं वह लाल रंग |

हर बार नीर से भरे दुर्ग ,
जब जब देखा वो नारसहार ,
हर बार करुण एक आह बनी ,
जब सुनी मौत कि नयी कराह |

मिला नहीं किसे पति- पुत्र ,
और निज को नहीं मिला भ्राता ,
और बिछड़ गयी सास से बहु ,
जब भी बहा यह लाल लहू |

हर बार सोचता हु यह प्रश्न ,
क्यों तोड़ रहे वे खुद का अंश ,
हर बार मिला एक ही उत्तर ,
वहा इंसानियत खड़ी बनी निरुत्तर |

दुःख हुआ मुझे जब सोचा में ,
वे रॊज मचाते है उत्पात ,
और हिला रहे है नीव देश कि ,
जब पड़ोसियों से बन रही न बात |

हर बार समझता रहा यह कि ,
कल होगा इस सब का अंत ,
हर बार निराशा हाथ लगी ,
सब भूल खड़े थे धर्मपंत |

क्यों उनकी बाते करू याद ,
और होता रहू इस तरह त्रस्त ,
जब देख न सकते वे अंधे ,
हो रहा उनकी जाती का अस्त |

डॉ सुनील अग्रवाल 



Friday, 20 September 2013

पापा मेरा क्या कसुर ?


आज उन नन्ही कोमल उंगलियों ने मुझे छुआ ,
तब शायद पहेली बार मुझे ये एहसास हुआ ,
वो मांग रही है मुझसे अपने लिए जीने की दुआ ,
और पुछ रही मुझे 'पापा मुझसे क्या कसुर हुआ' ?

तब मेरे होट कपकपाने लगे ,
चक्षु भी नीर बहाने लगे ,
शब्द भी मुह छुपाने लगे ,
कुछ कहने को शब्द कतराने लगे |

उस मासूम का था निश्चल सा चहेरा ,
उसके जिन्दगी का बस हुआ था सबेरा ,
मगर यहाँ पर था छलकपट का पहेरा,
अपने ही चले थे उजाड़ने उसका बसेरा |

माँ के आंचल में छिपके वो दुनिया में आयी ,
बड़े मुश्किल से उसने अपनी जिंदगी बचायी ,
पर क्या सचमे ये दुनिया उसे अपना है पायी ?
फिर कैसे मै दे दू उसे जिन्दगी की दुहाई ?

मन में है चाहत उसे हक़ दू मै सारे ,
भाग्यलक्ष्मी की उपमा से सब उसको वारे ,
लड़कीया कहलाये आखो के तारे ,
तभी सच्चा प्रायश्चित हो पायेगा प्यारे |


डॉ सुनील अग्रवाल 



Wednesday, 18 September 2013

गिद्ध और नेता ( मुज़फ्फरनगर की कहानी )


मैंने एक बच्चे से पुछा -
गिद्ध और नेता में अंतर बताओ ?
बच्चे ने थोडा सोचा ,
फिर अपना मुह पोछा ,
और बोला -
गिद्ध मरे हुए प्राणी का मॉस खाता है,
थोड़ी बहुत आहट से डर जाता है ,
जीवित प्राणी को नुकसान नहीं पहुचाता है ,
बदबु से हमें बचाता  है ,
गन्दगी उठाता है ,
बीमारियों से सभी को बचाता है ।

और नेता जो है -
मुज़फ्फरनगर  जैसी जगह में दंगे फैलता है ,
जिन्दा लोगो को मार गिराता है ,
फिर वहा सहानुभुति बताने जाता है ,
घडियाली आसु बहाकर मुआवजा दिलाता है ,
फिर लाशो के अम्बार पर बैठकर ,
वोटो की सौगात खाता है |

जब इससे भी पेट नहीं भर पाता है ,
तब वो संसद भवन चला जाता है ,
वहा जाकर अपना शोक जताता है ,
फिर वहा से नेताओ का झुड लाता है ,
गरीबो को धेला देकरके ,
बाकी सारा पैसा मिलबाटकर खाता है |

इस तरह वो समाज में गन्दगी फैलाता है ,
पुलिस और जनता दोनों को डराता है ,
दुसरो पर सांप्रदायिकता का इल्जाम लगता है ,
और थोड़े ही दिन बाद ये नेता ,
बेशर्मो की तरह वोट मांगने चला आता है |

गिद्ध तो बहुत अच्छे है साहब !
ये तो राक्षसों और सियारों के प्रजाति से आता है |


डॉ सुनिल अग्रवाल










Tuesday, 17 September 2013

ऑनर किलिंग

 

मै चाह कर भी न जान सका वो अनजान राहे ,
जहा क्षितिज पे मिलता है आस्मां-धरा से फैला के बाहे ,
दिल में एक अरमा है की उस क्षितिज पर हम चलकर जाये ,
फिर जुदा न कर पायेगा जमाना गर वो चाहे |

वहा अमीर गरीब का बंधन पीछे छूट जायेगा ,
वहा समाज का उच्च नीच हमें जुदा न कर पायेगा ,
वहा पर उगता सूरज हमें और करीब लायेगा ,
और अंधरे का चादर हमारी दुरिया मिटाएगा |

यहाँ पर तो पंचायत माई बाप बन जाता है ,
प्यार को भूलकर नफरत के फरमान सुनाता है ,
औलाद की ख़ुशी से ज्यादा आत्मसम्मान हो जाता है ,
माँ बाप को यहाँ पर तो समाज का डर सताता है |

रिश्ता अपनो से  एक क्षण में टूट जाता है ,
घर का लाडला अब नासूर बन जाता है ,
प्यार का रिश्ता खून से सन जाता है ,
इन्सान अपनी इंसानियत भूल जाता है |

तब मुझे धरा से अम्बर का मिलन याद आता है ,
इस नफरत से भरी दुनिया में क्षितिज मुझे बहुत भाता है |

डॉ सुनील अग्रवाल